Sunday 29 January 2017

लोकतन्त्र के चुनावी महापर्व के झुमले उलझती जनता – उत्तम विद्रोही की बेबाक बात

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और चुनाव किसी भी लोकतंत्र का महापर्व होते हैं ऐसा कहा जाता है। पता नहीं यह गर्व का विषय है या फिर विश्लेषण का कि हमारे देश में इन महापर्वों का आयोजन लगा ही रहता है । कभी लोकसभा  कभी विधानसभा तो कभी नगरपालिका के चुनाव। लेकिन अफसोस की बात है कि चुनाव अब नेताओं के लिए व्यापार बनते जा रहे हैं ! उत्तम विद्रोही को माफ़ किजिये चुनावी माहोल व वादो के साथ  लैपटॉप स्मार्ट फोन जैसे इलेक्ट्रौनिक उपकरण से लेकर प्रेशर कुकर जैसे बुनियादी आवश्यकता की वस्तु बाँटने से शुरू होने वाली बात घी , गेहूँ और पेट्रोल तक पंहुँच गई। कब तक हमारे नेता गरीबी की आग को पेट्रोल और घी से बुझाते रहेंगे?

उप्र की समाजवादी पार्टी हो या पंजाब का भाजपा अकाली दल गठबंधन दोनों को सत्ता में वापस आने के लिए या फिर अन्य पार्टियों को राज्य के लोगों को आज इस प्रकार के प्रलोभन क्यों देने पड़ रहे हैं?लेकिन बात जब पंजाब में लोगों को घी बाँटने की हो तो मसला बेहद गंभीर हो जाता है क्योंकि पंजाब का तो नाम सुनते ही जहन में हरे भरे लहलहाते फसलों से भरे खेत उभरने लगते हैं और घरों के आँगन में बँधी गाय भैंसों के साथ खेलते खिलखिलाते बच्चे दिखने से लगते हैं। फिर वो पंजाब जिसके घर घर में दूध दही की नदियाँ बहती थीं , वो पंजाब जो अपनी मेहमान नवाज़ी के लिए जाना जाता था जो अपने घर आने वाले मेहमान को दूध दही घी से ही पूछता था मेरे जेहन के आज एक बार बार उठती है की आज उस पंजाब के वोटर को उन्हीं चीजों को सरकार द्वारा मुफ्त में देने की स्थिति क्यों और कैसे आ गई?
जब हमारा देश आजाद हुआ था तब भारत पर कोई कर्ज नहीं था तो आज इस देश के हर नागरिक पर औसतन 45000 से ज्यादा का कर्ज क्यों है ?
हमारा देश इन बुनियादी आवश्यकताओं से आगे क्यों नहीं जा पाया?
और क्यों हमारी पार्टियाँ रोजगार के अवसर पैदा करके हमारे युवाओं को स्वावलंबी बनाने से अधिक मुफ्त चीजों के प्रलोभन देने में विश्वास करती हैं?

यह वाकई में एक गंभीर मसला है कि जो वादे राजनैतिक पार्टियाँ अपने चुनावी वादो में करती हैं वे चुनावों में वोटरों को लुभाकर वोट बटोरने तक ही क्यों सीमित रहते हैं। चुनाव जीतने के बाद ये पार्टियाँ अपने चुनावी वादो को लागू करने के प्रति कभी भी गंभीर नहीं होती और यदि उनसे उनके चुनावी घोषणा में किए गए वादों के बारे में पूछा जाता है तो सत्ता के नशे में अपने ही वादों कोचुनावी जुमले कह देती हैं। इस सब में समझने वाली बात यह है कि वे अपने चुनावी वादो को नहीं बल्कि अपने वोटर को हल्के में लेती हैं। 
आमआदमी तो लाचार है शिक्षित चुपचाप है अशिक्षित व् गरीब दो जून की रोटी के लिए संघर्षरत  है और मिडिया चुनावी विज्ञापन लेने में अपनी कलम के साथ गद्दार है !  अब चुने तो चुने किसे आखिर में सभी तो एक से हैं। उसने तो अलग अलग पार्टी को चुन कर भी देख लिया लेकिन सरकारें भले ही बदल गईं मुद्दे वही रहे। पार्टी और नेता दोनों ही लगातार तरक्की करते गए लेकिन वो सालों से वहीं के वहीं खड़ा है। क्योंकि बात सत्ता धारियों द्वारा भ्रष्टाचार तक ही सीमित नहीं है बल्कि सत्ता पर काबिज होने के लिए दिखाए जाने वाले सपनों की है। मुद्दा वादों को हकीकत में बदलने का सपना दिखाना नहीं उन्हें सपना ही रहने देना है। चुनाव आयोग द्वारा चुनाव से पहले आचार संहिता लागू कर दी जाती है। आज जब विभिन्न राजनैतिक दल इस प्रकार की घोषणा करके वोटरों को लुभाने की कोशिश करते हैं तो यह देश और लोकतंत्र दोनों के हित में है कि चुनाव आयोग यह सुनिश्चित करे कि पार्टियाँ अपने चुनावी वादो को पूरा करें और जो पार्टी सत्ता में आने के बावजूद अपने चुनावी वादो को पूरा नहीं कर पाए वह अगली बार चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दी जाए। जब तक इन राजनैतिक दलों की जवाबदेही अपने खुद के चुनावी वादो के प्रति तय नहीं की जाएगी हमारे नेता भारतीय राजनीति को किस स्तर तक ले जाएंगे इसकी कल्पना की जा सकती है। इस लिए चुनावी आचार संहिता में आज के परिप्रेक्ष्य में कुछ नए कानून जोड़ना अनिवार्य सा दिख रहा है।
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही ) 
प्रधान संपादक - विद्रोही आवाज़ 

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